उपपुराण समान्यतः पुराण नाम से प्रचलित अष्टादश महापुराणों के बाद रचित एवं प्रचलित उन ग्रन्थों को कहते हैं जो पंचलक्षणात्मक प्रसिद्ध महापुराणों से विषयों के विन्यास तथा देवीदेवताओं के वर्णन में निर्मित हैं, परन्तु उनसे कई प्रकार से समानता भी रखते हैं। इनकी यथार्थ संख्या तथा नाम के विषय में बहुत मतभेद है।
अष्टादश पुराणों की तरह अष्टादश उपपुराण भी परम्परा से प्रचलित हैं एवं अनेकत्र उनका उल्लेख मिलता है। इन उप पुराणों की संख्या यद्यपि अठारह प्रचलित है, परन्तु इससे बहुत अधिक मात्रा में उपपुराण नामधारी ग्रन्थों का उल्लेख तथा अस्तित्व मिलता है। संग्रह भाव से एकत्र की गयी उपपुराणों की सूचियाँ ही करीब दो दर्जन हैं। डॉ॰ आर॰ सी॰ हाज़रा ने अपनी उपपुराण विषयक पुस्तक में विभिन्न ग्रन्थों से उपपुराणों की तेईस सूचियाँ प्रस्तुत की हैं। इन्हीं सूचियों को देवनागरी लिपि में डॉ॰ कपिलदेव त्रिपाठी ने 'पाराशरोपपुराणम्' की भूमिका में प्रस्तुत किया है। इन सूचियों में कुछ और जोड़कर डॉ॰ बृजेश कुमार शुक्ल ने 'आद्युपपुराणम्' की भूमिका में मूल श्लोक रूप में कुल २७ सूचियाँ प्रस्तुत की हैं। २८ वीं में मत्स्य पुराण के उद्धरण हैं। इन सभी सूचियों में से कुछ को छोड़कर शेष सभी के मूलाधार ग्रन्थों में बाकायदा कूर्म पुराण का नाम लेकर पूर्वोक्त सूची ही प्रस्तुत की गयी है। फिर भी कहीं-कहीं पाठभेद मिलने पर इन अध्येताओं ने उन्हें अलग पुराण के रूप में गिन लिया है। इस सन्दर्भ में यह तथ्य विशेष ध्यातव्य है कि उपपुराणों की सर्वाधिक विश्वसनीय एवं अपेक्षाकृत सर्वाधिक प्राचीन सूची अष्टादश मुख्य पुराणों में ही अनेकत्र मिलती है। यह तथ्य भी विशेष ध्यातव्य है कि मुख्य पुराणों में उपलब्ध ये सूचियाँ बिल्कुल सामान हैं। स्कन्द पुराण के प्रभास खण्ड में तथा कूर्म पुराण एवं गरुड़ पुराण में प्रायः बिल्कुल समान रूप में अष्टादश उपपुराणों की सूची दी गयी है, जो इस प्रकार है :-
सूचना :
इनमें से क्रमसं॰ १.आदि २.नरसिंह ४.शिवधर्म ६.नारदीय ७.कपिल १२.कालिका १४.साम्ब १५.सौर १६.पाराशर एवं १८.भार्गव उपपुराण प्रकाशित हो चुके हैं।
शेष अप्रकाशित उपपुराणों में क्रमसं॰ ३.नन्दी ११.वरुण १३.वासिष्ठलैङ्ग (=माहेश्वर) एवं १७.मारीच उपपुराण की पाण्डुलिपि (मातृका) उपलब्ध हैं।
तथा क्रमसं॰ ५.आश्चर्य (दौर्वासस्) एवं ८.मानव उपपुराण की पांडुलिपि अभी तक अप्राप्य हैं।
क्रमसं॰ ९.औशनस तथा ब्रह्माण्ड उपपुराण की कोइ जानकारि प्राप्त नहीं हुई है।
यह ध्यातव्य है कि उपर्युक्त क्रम में प्रथम उपपुराण को प्रायः सभी सूचियों में 'आद्यं सनत्कुमारोक्तम्' कहने के बावजूद टीकाकारों ने 'आद्यं' का अर्थ पहला तथा 'सनत्कुमारोक्तम्' का अर्थ 'सनत्कुमार पुराण' लिख दिया है। परन्तु, स्वयं 'आदि पुराण' में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इसका उपदेश सर्वप्रथम सनत्कुमार ने दिया था तथा इसका नाम 'आदि पुराण' है। इसी प्रकार तीसरे स्थान पर कथित 'नन्दिपुराण' का नाम वस्तुतः मूल श्लोकों में नाम गिनाते समय 'कुमारोक्त स्कान्द' कहा गया है, परन्तु उसके बाद वर्णन के क्रम में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि कार्तिकेय के द्वारा नन्दी के माहात्म्य-वर्णन वाला यह पुराण ही 'नन्दिपुराण' के नाम से विख्यात है। यह स्पष्टीकरण नाम मात्र के पाठ भेद से मत्स्य पुराण में भी दिया गया है। अतः तीसरे स्थान पर उक्त पुराण का नाम वस्तुतः 'नन्दिपुराण' ही सिद्ध होता है।
दूसरी बात यहाँ गौर करने की यह है कि मुख्य पुराणों में दी गयी उप पुराणों की सभी सूचियों में ब्रह्माण्ड पुराण का नाम भी है, जिससे यह प्रतीत होता है कि मुख्य ब्रह्माण्ड पुराण के अतिरिक्त इस नाम का कोई उपपुराण भी था, जिसका नाम इन सूचियों में मौजूद है। इसी प्रकार यहाँ उल्लिखित 'नारदीय पुराण' भी महापुराणों में परिगणित मुख्य नारदीय पुराण से भिन्न एक उपपुराण है जिसके वक्ता वस्तुतः मूल रूप से नारद को ही माना गया हैं।
अठारह मुख्य पुराणों के बाद सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पुराण देवीभागवत में दी गयी उपपुराणों की सूची में यदि क्रम-भिन्नता को छोड़ दिया जाय तो अधिकांश नाम तो पूर्वोक्त सूची के समान ही हैं, पर कुछ नामों में भिन्नता भी है। देवी भागवत में चौथे स्थान पर शिवधर्म के बदले केवल 'शिव' नाम दिया गया है तथा ब्रह्माण्ड, मारीच एवं भार्गव के नाम छोड़ दिये गये हैं और उनके बदले आदित्य, भागवत एवं वासिष्ठ नाम दिये गये हैं। श्रीमद्भागवत पुराण एवं देवी भागवत में से कौन वस्तुतः महापुराण है, यह विवाद तो प्रसिद्ध ही है, जिस पर यहाँ कुछ भी लिखना उचित नहीं है। दूसरी बात यह कि तीन-तीन मुख्य पुराणों से उद्धृत पूर्वोक्त सूची में से किसी में भागवत या देवी भागवत -- किसी का नाम नहीं है। 'आदित्य पुराण' के नाम को लेकर भारी भ्रम प्रचलित है। कहीं तो उसे स्वतंत्र पुराण मान लिया गया है और कहीं 'सौर पुराण' का पर्यायवाची मान लिया गया है। परन्तु, इस सन्दर्भ में स्कन्द पुराण के प्रभास खण्ड तथा मत्स्य पुराण में स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है कि आदित्य महिमा से सम्बद्ध होने के कारण 'साम्ब पुराण' को ही 'आदित्य पुराण' कहा जाता है। अतः आदित्य पुराण कोई स्वतंत्र पुराण न होकर साम्ब पुराण का ही पर्यायवाची नाम है। अतः इस दृष्टि से विचार करने पर भी पूर्वोक्त सूची ही सर्वाधिक प्रामाणिक ज्ञात होती है।
उपपुराणों के अध्येता डॉ॰ लीलाधर 'वियोगी' उपपुराणों की संख्या बढ़ाने में इस कदर लीन हो गये हैं कि अनेक जगह 'कुमार द्वारा कथित' 'स्कान्द' ही वस्तुतः 'नन्दी पुराण' है तथा 'साम्ब पुराण' का ही दूसरा नाम 'आदित्य पुराण' है, ऐसा उल्लेख रहने के बावजूद वे ऐसा कोई उद्धरण न देकर भिन्न-भिन्न पुराणों की संख्या बढ़ाते गये हैं। उपपुराणों में परिगणित 'ब्रह्माण्ड पुराण' मुख्य पुराणों में परिगणित 'ब्रह्माण्ड पुराण' से भिन्न है, इसलिए दूसरे ब्रह्माण्ड के साथ 'अपर' नाम लगा रहने से डॉ॰ वियोगी उसे एक और भिन्न उपपुराण मान लेते हैं। इसी तरह कहीं किसी पुराण के साथ 'अतिविस्तरम्' या 'सविस्तारम्' शब्द मूल श्लोक में आ गया है तो उन्होंने उसे भी उसी नाम का एक और भिन्न उपपुराण मान लिया है। मूल ग्रन्थों में अनेकत्र स्पष्ट उल्लेखों के बावजूद ऐसी अनवधानता के कारण पुराणों की संख्या भ्रामक रूप से बढ़ती चली गयी है।
हेमाद्रि विरचित 'चतुर्वर्गचिन्तामणि' में भी कूर्म पुराण का नाम लेकर उसके अनुसार उपपुराणों का नाम गिनाया गया है तथा अंत में फिर लिखा है कि ऐसा कूर्म पुराण में कहा गया है।
'वीरमित्रोदय' के 'परिभाषा प्रकाश' में भी कूर्म पुराण का नाम लेकर वही सूची प्रस्तुत की गयी है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि उपपुराण के अन्तर्गत उल्लिखित 'नारदीय' एवं 'ब्रह्माण्ड' महापुराण से भिन्न है।
'नित्याचारप्रदीपः' में भी पूर्ववत् कूर्म पुराण वाली ही सूची दी गयी है तथा यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि यद्यपि प्रसिद्ध नरसिंह पुराण में अठारह हजार श्लोक उपलब्ध नहीं होते हैं परन्तु ऐसा कालक्रम से श्लोकों के लुप्त हो जाने से हुआ होगा। इसी प्रकार 'स्कान्द' नाम से कथित पुराण 'नन्दीपुराण' ही है यह भी स्पष्ट कर दिया गया है। पुनः 'साम्ब पुराण' को ही 'आदित्य पुराण' कहा जाता है यह श्लोक भी उद्धृत है।
अद्वैत वेदान्त के प्रख्यात मनीषी मधुसूदन सरस्वती ने भी पूर्वोक्त सूची ही दी है। उनके कथन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि 'माहेश्वर पुराण' का ही दूसरा नाम 'वाशिष्ठलिंग पुराण' है।
आचार्य बलदेव उपाध्याय ने पर्याप्त तर्कों के आधार पर सिद्ध किया है कि शिव पुराण वस्तुतः एक उपपुराण है और उसके स्थान पर वायु पुराण ही वस्तुतः महापुराण है। इसी प्रकार देवीभागवत भी एक उपपुराण है। परन्तु इन दोनों को उपपुराण के रूप में स्वीकार करने में सबसे बड़ी बाधा यह है कि स्वयं विभिन्न पुराणों में उपलब्ध अपेक्षाकृत अधिक विश्वसनीय सूचियों में कहीं इन दोनों का नाम उपपुराण के रूप में नहीं आया है। दूसरी ओर रचना एवं प्रसिद्धि दोनों रूपों में ये दोनों महापुराणों में ही परिगणित रहे हैं। पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र ने बहुत पहले विस्तार से विचार करने के बावजूद कोई अन्य निश्चयात्मक समाधान न पाकर यह कहा था कि 'शिव पुराण' तथा 'वायु पुराण' एवं 'श्रीमद्भागवत' तथा 'देवीभागवत' महापुराण ही हैं और कल्प-भेद से अलग-अलग समय में इनका प्रचलन रहा है। इस बात को आधुनिक दृष्टि से इस प्रकार कहा जा सकता है कि भिन्न संप्रदाय वालों की मान्यता में इन दोनों कोटि में से एक न एक गायब रहता है। इसी कारण से महापुराणों की संख्या तो १८ ही रह जाती है, परन्तु संप्रदाय-भिन्नता को छोड़ देने पर संख्या में दो की वृद्धि हो जाती है। इसी प्रकार प्राचीन एवं रचनात्मक रूप से परिपुष्ट होने के बावजूद हरिवंश एवं विष्णुधर्मोत्तर का नाम भी 'बृहद्धर्म पुराण' की अपेक्षाकृत पश्चात्कालीन सूची को छोड़कर पुराण या उपपुराण की किसी प्रामाणिक सूची में नहीं आता है। हालाँकि इन दोनों का कारण स्पष्ट ही है। 'हरिवंश' वस्तुतः स्पष्ट रूप से महाभारत का खिल (परिशिष्ट) भाग के रूप में रचित है और इसी प्रकार 'विष्णुधर्मोत्तर' भी विष्णु पुराण के उत्तर भाग के रूप में ही रचित एवं प्रसिद्ध है। नारद पुराण में बाकायदा विष्णु पुराण की विषय सूची देते हुए 'विष्णुधर्मोत्तर' को उसका उत्तर भाग बताकर एक साथ विषय सूची दी गयी है तथा स्वयं 'विष्णुधर्मोत्तर' के अन्त की पुष्पिका में उसका उल्लेख 'श्रीविष्णुमहापुराण' के 'द्वितीय भाग' के रूप में किया गया है। अतः 'हरिवंश' तो महाभारत का अंग होने से स्वतः पुराणों की गणना से हट जाता है। 'विष्णुधर्मोत्तर' विष्णु पुराण का अंग-रूप होने के बावजूद नाम एवं रचना-शैली दोनों कारणों से एक स्वतंत्र पुराण के रूप में स्थापित हो चुका है। अतः प्रतीकात्मक रूप से महापुराणों की संख्या अठारह मानने के बावजूद व्यावहारिक रूप में 'शिव पुराण', 'देवीभागवत' एवं 'विष्णुधर्मोत्तर' को मिलाकर महापुराणों की संख्या इक्कीस स्वीकार करनी चाहिए।
पूर्वोक्त प्राचीन तथा प्रसिद्ध उपपुराणों के अतिरिक्त उपपुराणों की दो और सूचियाँ मिलती हैं, जिन्हें अति पुराण एवं पुराण अथवा औप पुराण कहा गया है। अति पुराण के अंतर्गत सूची इस प्रकार है-- कार्तव, ऋजु, आदि, मुद्गल, पशुपति, गणेश, सौर, परानन्द, बृहद्धर्म, महाभागवत, देवी, कल्कि, भार्गव, वाशिष्ठ, कौर्म, गर्ग, चण्डी और लक्ष्मी। पुराण अथवा औप पुराण के अन्तर्गत सूची इस प्रकार है-- बृहद्विष्णु, शिव उत्तरखण्ड, लघु बृहन्नारदीय, मार्कण्डेय, वह्नि, भविष्योत्तर, वराह, स्कन्द, वामन, बृहद्वामन, बृहन्मत्स्य, स्वल्पमत्स्य, लघुवैवर्त और ५ प्रकार के भविष्य।
इस सूची में 'महाभागवत' एवं 'देवी पुराण' के नाम अलग-अलग हैं जबकि ये दोनों नाम वस्तुतः एक ही पुराण के हैं। इनके अलावा अन्य नामों में जो नाम महापुराणों एवं पूर्वोक्त उपपुराणों से मिलते-जुलते हैं तथा भिन्न रूप में उपलब्ध भी नहीं हैं, उन्हें यदि छोड़ दिये जाएं तथा लगभग १००० ई॰ के आसपास रचित 'विष्णुधर्म' एवं 'एकाम्र पुराण' के नाम जोड़ दिये जाएं तो औप पुराणों की सूची इस प्रकार होगी :-
पूर्वोक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त भी 'पुराण' नामधारी अनेकानेक ग्रन्थों का प्रणयन बाद में भी होता रहा है। कुछ ग्रंथ तो आधुनिक संपादन का परिणाम है। उदाहरणस्वरूप विश्वकर्मा से संबंधित वर्णनों को विभिन्न ग्रन्थों से एकत्र कर विभिन्न संपादकों ने 'विश्वकर्मा पुराण' नाम से निजी इच्छानुसार अध्यायों में विभाजित कर विभिन्न स्थानों से प्रकाशित करवाया है। 'श्रीमहाविश्वकर्मपुराण' इससे भिन्न रचना है, परन्तु उसका नाम किसी प्राचीन साहित्य में नहीं आया है। विभिन्न संप्रदाय के लोगों ने अपने-अपने मत की पुष्टि के लिए पुराण नामधारी ग्रंथों की रचना कर डाली है। इनमें से अनेक प्रकाशित भी हैं। ऐसे प्रकाशित ग्रन्थों में प्रमुख हैं :
इन ग्रन्थों के नाम किसी प्राचीन सूची में नहीं मिलता है और इनके पौराणिक ग्रंथ होने पर भी संदेह व्यक्त किया गया है। 'नीलमतपुराणम्' के पुराण होने या न होने के सन्दर्भ में स्वयं इसके संपादक ने जोर देकर कहा है कि 'नीलमतम्' पुराणों की श्रेणी में नहीं आता है। (Strictly speaking, the Nilamatam does not come under the category of The Puranas.) इसी प्रकार 'आत्म पुराण' के बारे में भी कहा गया है कि "आत्मपुराण परम्परागत महापुराणों, उपपुराणों आदि से कुछ भिन्न है। इसी कारण महापुराणों या उपपुराणों की सूची में इसका उल्लेख प्राप्त नहीं होता, यह काफी बाद में तेरहवीं शताब्दी में लिखा गया है।"